Tuesday, June 1, 2010

**संकल्‍प शक्ति अंतिम भाग **

संकल्‍प शक्ति अंतिम भाग

एक संत के पास एक भक्‍त गया उसने कहा मैं आपसे शान्ति का मार्ग पूछने आया हॅू संत ने तुरन्‍त पूछा -- अशान्ति का मार्ग पूछने कहां गये थे, वह तो अपने आप प्राप्‍त हो गया --- भक्‍त ने बताया । तब शान्ति का मार्ग भी अपने आप क्‍यों नहीं खोज लेते सन्‍त ने प्रतिप्रश्‍न किया । व्रति परिष्‍कार का उपाय स्‍वयं से ही खोजना है , इस निष्‍ठा के बाद ही आगे का द्धार खुलता है ।

क्‍या है व़्रति

व़्रतिया मुख्‍यता दो प्रकार की होती है राग और द्धेष । कभी राग की व़्रति ऊभर आती है और कभी द्धेष की जो निषेधात्‍मक भाव में अधिक जीता है वह द्धेष प्रधान होता है जो विधायक भाव में अधिक जीता है वह राग प्रधान होता है या समभाव प्रधान । वर्तमान मनोविज्ञान भी मुख्‍य दो व़्रतियां मानता है --- जीवन मूलक व़्रति और म़त्‍युमूलक व़्रति । हास्‍य राग का परिवार है और ध़णा द्धेष का । यूं तो परम विशुद्ध चेतना के साथ किसी व़़्रति का सम्‍पर्क बताना ही मिथ्‍या द़ष्टिकोण है परन्‍तु जब राग और द्धेष क्रोध और मोह उसके साथ जुड़ते है तब चेतना अशुद्ध हो जाती है । जब हम किसी पानी को अशुद्ध बना सकते है तो शुद्ध बनाने का दायित्‍व भी हमारे पर आता है ।

सूत्र

1- मुझे बदलना है, संकल्‍प परिवर्तन का पहला सूत्र है । अधिकांश लोग इस संकल्‍प के पूर्व शे ष सब संकल्‍प दोहराते चले जाते है । नाव वहीं खड़ी है जहां कल रात खड़ी थी । यात्रा हो रही है , किन्‍तु बिना उजाले के। मंजिल के लिए सही संकेत और उजाला चाहिये तभी सम्‍यग़ द़ष्टिकोण में परिवर्तन हो सकता है ।

2- व़्रति चेतना के केन्‍द्र के आस पास धूमती है । उसे सारा पोषण भीतर से मिलता है जब तक पोषण खुराक मिलती रहेगी तब तक कोई भी व़्रति क्‍यों मरेगी, उसे दुर्बल करने का मार्ग है ध्‍यान । ध्‍यान की अवस्‍था में नया बंध नहीं होता । बंध होता है चंचलता में । ध्‍यान से चंचलता घटती है यद्यपि एक दिन में कोई व्‍यक्ति ध्‍यान करके क्रोध को घटा नहीं सकता परंतु मार्ग यही है । लाखेां साधकों ने इस प्रयोग से सत्‍य को पाया है । जागरण से व्‍यक्ति बदलता है दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलेगा कि कोई जागा हो और न बदला हो । अपने भीतर गया हो और नहीं बदला हो । अपनी व़्रतियों की और झांका हो और परिष्‍कार न हुआ हो ।

3- हमारा पूरा शरीर पावर हाऊस है । जब हम कोई ठेास संकल्‍प करते है तब हमारे मन की ऊर्जा विद्युत चुम्‍बकीय क्षेत्र को प्रभावित करती है । वह हमारे शरीर व्‍यापि स्‍नायु तारों से जुड़कर सम्‍प्रेषण, भावोतेजन, परिवर्तन जैसी सभी क्रियाओं के करने में सक्षम हो जाती है । अवचेतन में हम जैसा भेजते हैं वही साकार होता है, यह सच्‍चाई है । जिसने संकल्‍प किया है वह अवश्‍य बदला है । संकल्‍प करे और कोई न बदले यह असंभव है । संकल्‍प की भाषा अभाषा होती है , केवल ऊर्जामय होती है जिससे जड़ और चेतन दोनों को प्रभावित किया जा सकता है । इस शक्ति से शरीर का वर्ण, मुंह का स्‍वाद, बुद्धि का स्‍वाद, सामने की आदत तूफान को थामना आदि अनेक असंभव कार्य जो इन्द्रिय स्‍तर पर नहीं हो सकते, उन्‍हें संकल्‍प अतीन्द्रिय स्‍तर पर सम्‍पादित करता है ।

पानी बढ़ा तूफान आया और सब भागने लगे भागते हुए सभी लोगों ने चिल्‍ला कर कहा -- बाबा उठो, तुम भी भागने की तैयारी करो अन्‍यथा डूब जाओगे । सन्‍यासी ने धीरे धीरे बोलते हुए पूछा -- जरा बताओ कहां है तूफान भीड़ में से एक आवाज आयी --- वह रहा सामने तूफान, जो हमारी और बढ़ता आ रहा है । अच्‍छा , सन्‍यासी ने कहकर सामने देखा और तीन बार एक ही शब्‍द को दोहराया -- शांन्‍त शान्‍त शान्‍त तूफान आगे बढ़ने से एक साथ रुक गया ।

मन एक चंचल हवा है जिसे संकल्‍प के सहारे एक साथ रोका जा सकता है । इस हवा के रुकते ही तल में व्रत्तियों के सागर में जो बाहर से प्रभाव जाता है वह घटने लगता है । एक दिन भीतर का दबाव भी कम हो हाता है । ये हमारी सारी व़्रत्तियां मन के वेग से बल पकड़ती है । इन्‍हें निर्बल करने के लिए मन का संतुलन जरुरी है ।

मन के संतुलन की विधि

आराम से किसी आसन में बैठ जाये । शरीर के किसी भाग में भारीपन न रहे । शरीर की सभी क्रियाओं के प्रति एक साथ जागरुक हो जायें । सोचें नहीं, अनुभव करते जायें । इस शांत अवस्‍था में ध्‍वनियां सुनाई देती है । उनमें से एक ध्‍वनि जागरुकता से सुनते जायें, उसके स्‍थूल और सूक्ष्‍म दोनों प्रकार के ध्‍वनि प्रकम्‍पनों का अनुभव करें ।

आत्‍म चिंतन

कोई आत्‍म चिंतन करे और न बदले यह हो नहीं सकता ईमानदारी से कोई यह चिंतन करे कि क्रोध, ध्रणा कपट जैसे पाप करके में अपना अहित क्‍यों करुं तो निश्चित रुप से वह बदलेगा ।

मन की शुद्धि

अहंकार एक व़्रति है यह सबसे खतरनाक व्रति है जिसे मिटाने के लिए कोई विशेष प्रयोग चाहिए । हम केवल विषव़क्ष के पान फूलों को काट कर संतोष कर लेते है जबकि जड़ को पकड़ना चाहिए । निमित पर टिकी श्रद्धा चैतन्‍य के प्रति मूर्च्‍छा पैदा करती है मूर्च्छित व्‍यक्ति क्‍या क्‍या नहीं करता, जो अपना है उसे पराया मानता है और जो पराया है उसे अपना । यह भ्रम टूटता है स्‍वयं के मन को समझने से । धन मिला अंह बढ़ गया समाज में प्रतिष्‍ठा मिल गयी । क्‍या अहं उत्‍पन्‍न होने का कारण धन था.... धन मात्र निमित्‍त था जिसके सहारे हमारे भीतर बैठा राग अभिव्‍यक्‍त हो गया ।

संशोधन निमितों का नहीं मन का करना है । भ्रम भी एक व़्रति है जिसके कारण व्‍यक्ति स्‍वयं से दूर रहता है । इस व़्रति का परि‍ष्‍कार अस्तित्‍व बोध से हो सकता है । जिसके पास अधिक संग्रह होगा उसे अधिक भय होगा क्‍योंकि सुरक्षा के उपाय बहुत जटिल होते हैं ।

मनुष्‍य की एक यह भी मनोव़ति होती है कि वह स्‍वयं को छुपाना चाहता है वह नहीं छुपाये तो असलियत प्रगट होती है जहां उसका अहं खडा नहीं रह सकता । अहं को जिंदा रखने के लिये व्‍यक्ति को कुटिल बनना पड़ता है संकल्‍प शक्ति से मन की कुटिलता को बदला जा सकता है । परिष्‍कार एवं परिवर्तन के लिये दीर्ध मौन, द़ष्टि परिवर्तन एवं कायोत्‍सर्ग ही एकमात्र उपाय है ।


अनिल हर्ष