Saturday, March 27, 2010

'' दोस्‍तों के पैगाम दोस्‍तों के नाम ''



बिकता है गम हुस्‍न के बाजार में

लाखेां दर्द छिपे होते हैं एक छोटे से इन्‍कार में

जो हो जाओ अगर जमाने से दुखी

तो स्‍वागत है हमारे दोस्‍ती के दरबार में ।


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चॅाद को अकेले कभी ना पाओगे

आगोश में सितारे मिल ही जायेंगे

कभी अगर तन्‍हा हो तो

आंखें बंद कर लेना

अनजान चेहरों में भी हमें ही पाओगे ।

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दुनिया में खु शी उनको नहीं मिलती है

जो अपनी शर्तों पर जिन्‍दगी जीते है

बल्कि उहें खुशी उन्‍हें मिलती है

जो दूसरों के लिये जिन्‍दगी की

शर्तों को बदल देते हैं ।

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दायरे में रहना ही जिन्‍दगी है

गमों को सहना भी जिन्‍दगी है

यूं तो रहती है होठों पे मुस्‍कराहट

पर शायद चुपके चुपके रोना भी जिन्‍दगी है ।

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यकीन नहीं तुझे अगर खुद पे

तो जरा अजमा के देख ले

एक बार तूं जरा मुस्‍कराकर देख ले

जो ना सोचा होगा तुने ---- वो मिलेगा

बस इक बार अपना कदम बढ़ा कर देख ले ।

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अनिल हर्ष


1 comment:

  1. वाह हर्ष जी, जिंदगी के मूल्‍यों व मतलबों को आपने बड़ी खूबसूरती से इस कविता में उकेरा है। वाकई आपकी यह कविता काबिले तारीफ है। मेरी तरफ से आपको ढेर सारी शुभकामनाएं।।।।।।।।

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